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September 21, 2024
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96 साल की महिला पर 11 हजार लोगों की हत्या का आरोप, जुवेनाइल कोर्ट में हो रही सुनवाई, जानें क्यों?


जर्मनी में हिटलर की सहयोगी 96 साल की एक नाजी महिला पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 11000 लोगों की हत्या का आरोप लगाया गया है। यह महिला उस समय नाजियों के एक यातना गृह में सचिव के रूप में काम करती थी। अभी इस महिला की सजा को लेकर कोई ऐलान नहीं हुआ है।
जर्मनी में 96 साल की एक महिला पर 11 हजार लोगों की हत्या का मुकदमा चल रहा है। आरोप है कि इर्मगार्ड फुरचनर नाम की यह महिला द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अडोल्फ हिटलर की नाजी सेना में शामिल थी। यह महिला उस समय नाजियों के एक यातना गृह में सचिव के रूप में काम करती थी। जहां इस महिला ने 11 हजार यहूदियों की हत्या में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई थी। अभी इस महिला की सजा को लेकर कोई ऐलान नहीं हुआ है। जर्मनी की गोपनीयता कानून के तहत इस महिला की वास्तविक पहचान को छिपाकर इर्मगार्ड फुरचनर के नाम से संबोधित किया गया है।
अपराध के समय इस महिला की उम्र 21 साल के कम थी। इसलिए, जर्मनी के कानून के हिसाब से इस महिला को सजा के लिए किशोर अदालत में पेश किया जाएगा। जिसके बाद इसके वीभत्स जुर्म को लेकर सजा का ऐलान होगा। बता दें कि, जर्मनी में 21 साल के कम उम्र के नागरिकों को अपराध के लिए किशोर अदालत सजा सुनाती है।
यह महिला जून 1943 से अप्रैल 1945 के बीच पोलैंड के शहर ग्दान्स्क से 20 मील की दूरी पर स्थित स्तुथोफ कैंप के कमांडर की सचिव के रूप में काम करती थी। अभियोजकों ने कहा कि महिला ने स्वीकार किया था कि उसके कैंप में बहुत से पत्राचार और कई फाइलें ऐसी थीं जिसमें उसे कैदियों की कुछ हत्याओं के बारे में बहुत कुछ पता था। हालांकि, उसने इस जानकारी से इनकार किया था कि उस समय हजारों लोगों को गैस चेंबर में मारा गया था।
पिछले साल, 93 वर्षीय एक व्यक्ति को हैम्बर्ग के एक किशोर न्यायालय में 5,230 हत्याओं के लिए दोषी ठहराया गया था। वह भी स्तुथोफ कैंप में 17 साल की उम्र में गार्ड का काम करता था। माना जाता है कि 60,000 से अधिक लोग स्तुथोफ कैंप में नाजियों के हाथों मारे गए थे। यह जर्मनी की सीमा के बाहर स्थापित होने वाला पहला यातना शिविर था।
क्या था होलोकॉस्ट : 1939 में जर्मनी द्वारा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अपने अंतिम हल (फाइनल सोल्यूशन) को अमल में लाना शुरू किया। बताया जाता है कि 1941 से ऑश्वित्ज के नाजी होलोकॉस्ट सेंटर पर हिटलर की खुफिया एजेंसी एसएस यूरोप के अधिकतर देशों से यहूदियों को पकड़कर यहां लाती थी। जहां काम करने वाले लोगों को जिंदा रखा जाता था, जबकि जो बुढ़े या अपंग लोग होते थे उन्हें गैस चेंबर में डालकर मार दिया जाता था। इन लोगों के सभी पहचान के सभी दस्तावेजों को नष्ट कर हाथ में एक खास निशान बना दिया जाता था।
1939 में जर्मनी द्वारा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अपने अंतिम हल (फाइनल सोल्यूशन) को अमल में लाना शुरू किया। बताया जाता है कि 1941 से ऑश्वित्ज के नाजी होलोकॉस्ट सेंटर पर हिटलर की खुफिया एजेंसी एसएस यूरोप के अधिकतर देशों से यहूदियों को पकड़कर यहां लाती थी। जहां काम करने वाले लोगों को जिंदा रखा जाता था, जबकि जो बुढ़े या अपंग लोग होते थे उन्हें गैस चेंबर में डालकर मार दिया जाता था। इन लोगों के सभी पहचान के सभी दस्तावेजों को नष्ट कर हाथ में एक खास निशान बना दिया जाता था। इस कैंप में नाजी सैनिक यहूदियों को तरह तरह के यातनाएं देते थे। वे यहूदियों के सिर से बाल उतार देते थे। उन्हें बस जिंदा रहने भर का ही खाना दिया जाता था। भीषण ठंड में भी इनकों केवल कुछ चिथड़े ही पहनने को दिए जाते थे। जब इनमें से कोई बीमार या काम करने में अक्षम हो जाता था तो उसे गैस चेंबर में डालकर या पीटकर मार दिया जाता था। इस कैंप में किसी भी कैदी को सजा सार्वजनिक रूप से दी जाती थी, जिससे दूसरे लोगों के अंदर डर बना रहे। कई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि होलोकॉस्ट में करीब 60 लाख यहूदियों की हत्या की गई थी, जो इनकी कुल आबादी का दो तिहाई हिस्सा था।
दक्षिण अमेरिकी देश कंबोडिया में 1970 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पोल पॉट के नेतृत्व में खमेर रूज के शासन में लोगों पर भयंकर अत्याचार किए गए। इस घटना ने पूरे कंबोडिया को साम्यवाद की ओर ढकेल दिया था। इसके परिणामस्वरूप 1975 से 1979 के बीच करीब 20 लाख लोगों की मौत हुई थी। यह संख्या उस समय कंबोडिया की कुल आबादी की एक चौथाई थी। पोल पॉट और खमेर रूज को लंबे समय से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और वहां के तानाशाह माओत्से तुंग का समर्थन प्राप्त था। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि खमेरू रूज को 90 फीसदी विदेशी सहायता चीन से मिली थी। जिसमें बिना ब्याज की 1 बिलियन डॉलर की आर्थिक और सैन्य मदद भी शामिल थी। अप्रैल 1975 में सत्ता पर कब्जा करने के बाद खमेर रूज ने देश को एक समाजवादी कृषि गणराज्य में बदलना चाहा, जो अल्ट्रा-माओवाद की नीतियों पर आधारित था और सांस्कृतिक क्रांति से प्रभावित था। इस शासनकाल के दौरान अत्यधिक काम, भुखमरी और बड़े पैमाने पर लोगों को फांसी देने के चलते करीब 20 लाख लोगों की मौत हो गई थी। यह नरसंहार तब समाप्त हुआ जब 1978 में वियतनामी सेना ने आक्रमण किया और खमेर रूज शासन को खत्म कर दिया।
सेरासियन नरसंहार को रूस ने 1864 में सेरासियन पर कब्जे के दौरान अंजाम दिया था। तीन साल में ही रूसी सेना के अत्याचार से 25 लाख लोगों की मौत हुई थी। बताया जाता है कि इस दौरान रूसी सेना के हाथों 90 फीसदी तक सेरासियन के लोग या तो मारे गए या फिर भगा दिए गए। उस समय रूसी सेना ने इतने अत्याचार किए थे जिसे सुनकर आज भी लोगों की रूह कांप जाती है। रूसी सैनिक मनोरंजन के लिए सेरासियन की गर्भवती महिलाओं के पेट को फाड़कर बच्चा बाहर निकाल लेते थे। इतना ही नहीं, बाद में वे इस अल्पविकसित भ्रूण को कुत्तों के सामने फेंक देते थे। रूसी जनरल ग्रिगोरी जास तो यहां की महिलाओं को अमानवीय गंदगी करार देता था। वे यहां के लोगों को पकड़कर उनके ऊपर कई वैज्ञानिक प्रयोग करते थे। जब उनका कोई प्रयोग फेल हो जाता था तो वे इन लोगों को मार देते थे। यहां के लोग तब भागकर पड़ोसी देश तुर्की में शरण लेने पहुंचे थे।
आर्मीनिया और अन्य इतिहासकारों के अनुसार 1915 में ऑटोमन सेना ने बड़े व्यवस्थित तरीके से करीब 15 लाख लोगों की हत्या की थी। तुर्की लगातार इन दावों को खारिज करता आया है और इसके कारण आर्मीनिया और तुर्की के संबंधों में तनाव भी रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लाखों यहूदियों की हत्या और उन पर हुए अत्याचारों के बारे में जितनी चर्चा हुई है, उतनी चर्चा पहले विश्व युद्ध के दौरान मारे गए आर्मीनियाई नागरिकों की नहीं हुई। तुर्की ने आजतक आर्मीनिया में लोगों के ऊपर ढाए गए कहर को लेकर सार्वजनिक माफी तक नहीं मांगी है। इसके ठीक उलट, तुर्की के इस्लामिक तानाशाह रेसेप तैयप एर्दोगन ने हाल में ही आर्मीनिया के खिलाफ जंग में अजरबैजान का समर्थन किया था। उन्होंने अजरबैजान को वो हर जरूरी सहायता उपलब्ध कराई, जिससे आर्मीनिया की सेना को भारी नुकसान पहुंचा।
एक अनुमान के मुताबिक बोस्निया सर्ब सैनिकों ने इस नरसंहार में 8000 मुसलमानों को मौत के घाट उतारा था। मृतकों में अधिकतर की उम्र 12 से 77 साल के बीच थी। यह नरसंहार इतना वीभत्स था कि ज्यादातर लोगों को प्वॉइंट ब्लैंक रेंज (माथे के बीच) पर गोली मारी गई थी। इस नरसंहार के बाद बोस्निया के पूर्व सर्ब कमांडर जनरल रैट्को म्लाडिच को बूचर ऑफ बोस्निया के नाम से जाना जाने लगा। 1992 में यूगोस्लाविया के विभाजन के समय बोस्नियाई मुसलमानों और क्रोएशियाई लोगों ने आजादी के लिए कराये गए जनमत संग्रह के पक्ष में वोट दिया था जबकि सर्बिया के लोगों ने इसका बहिष्कार किया। सर्ब समुदाय और मुस्लिम समुदाय में इस बात को लेकर विवाद शुरू हो गया कि नया देश कैसे बनेगा। सर्ब और मुसलमानों के बीच उस समय मध्यस्थता कराने वाला कोई नहीं था। लिहाजा दोनों पक्षों ने बंदूक के दम पर एक दूसरे के ऊपर हमला करना शुरू कर दिया। इस गृहयुद्ध में हजारों लोगों की मौत हुई जबकि लाखों लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ा। र्ब लोगों को लगता था कि बोस्निया के मुसलमान कम जनसंख्या होने के बावजूद उनपर अधिकार जमाना चाहते हैं। इस बीच सर्ब सेना की कमान जनरल रैट्को म्लाडिच को दी गई। इस खूंखार कमांडर ने बोस्निया की लड़ाई के दौरान बर्बर अभियान चलाया और हर उस विद्रोही की हत्या करवाई जिसने भी सेना या सर्ब सत्ता का विरोध किया।
यहूदियों को मौत से पहले दी जाती थी यातनाएं : इस कैंप में नाजी सैनिक यहूदियों को तरह तरह के यातनाएं देते थे। वे यहूदियों के सिर से बाल उतार देते थे। उन्हें बस जिंदा रहने भर का ही खाना दिया जाता था। भीषण ठंड में भी इनकों केवल कुछ चिथड़े ही पहनने को दिए जाते थे। जब इनमें से कोई बीमार या काम करने में अक्षम हो जाता था तो उसे गैस चेंबर में डालकर या पीटकर मार दिया जाता था। इस कैंप में किसी भी कैदी को सजा सार्वजनिक रूप से दी जाती थी, जिससे दूसरे लोगों के अंदर डर बना रहे। कई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि होलोकॉस्ट में करीब 60 लाख यहूदियों की हत्या की गई थी, जो इनकी कुल आबादी का दो तिहाई हिस्सा था।

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