यूपी में चुनाव हो और आयोध्या का जिक्र न हो, ऐसा मुमकिन नहीं है। पिछले कई सालों से यह ट्रेंड रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब कुछ महीने बचे हैं। प्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़ते ही राम की नगरी में भी गतिविधियां बढ़ जाती हैं। नेताओं में अयोध्या जाने की होड़ दिखने लगती है। इस बार भी कुछ अलग नहीं है। तमाम पार्टियों की चुनावी रणनीति में अयोध्या सेंटर में है।
ताजा मामला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का है। उन्होंने 26 अक्टूबर को अयोध्या जाने का ऐलान किया है। वहां सीएम भगवान राम के दर्शन करेंगे। तमाम अन्य दलों की तरह आम आदमी पार्टी (आप) ने भी इस बार यूपी चुनाव में पूरी ताकत झोंकी है। इसके पहले पार्टी के दो दिग्गज नेता मनीष सिसोदिया और संजय सिंह भी अयोध्या का दौरा कर चुके हैं। शहर से पार्टी ने 14 अक्टूबर को तिरंगा यात्रा शुरू की थी।
इस दौरान दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने कहा था कि पार्टी उत्तर प्रदेश में भगवान राम के आदर्शों पर चलने वाली सरकार बनाएगी। प्रभु राम की कृपा से ही पार्टी को दिल्ली में सरकार चलाने का मौका मिला है।
इसके पहले BSP ने भी अपनी स्ट्रैटेजी में यू-टर्न लेते हुए अयोध्या से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की थी। इस दौरान बसपा के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने रामलला के दर्शन करने के साथ हनुमान गढ़ी और सरयू नदी के किनारे पूजा-अर्चना की थी। पार्टी की पॉलिटिक्स में इसे बड़ा शिफ्ट कहा जा सकता है। पहली बार ऐसा हुआ कि राम मंदिर निर्माण स्थल पर बसपा का कोई नेता ऑफिशियली गया हो।
AIMIM के चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने भी यूपी दौरे की शुरुआत अयोध्या से ही की थी। इसे एक संकेत के तौर पर देखा गया। ओवैसी ने इसके जरिये बाबरी ढांचा विध्वंस को लेकर मुसलमानों को एक होने का संदेश दिया। आगामी यूपी चुनावों में ओवैसी मुसलमानों का मसीहा होने का दम भर रहे हैं।
केंद्र में क्यों आ जाता है अयोध्या? : पिछले कुछ दशकों में अयोध्या यूपी ही नहीं केंद्र के चुनावों में भी फोकस में रहा है। इस शहर से हिंदुओं की आस्था जुड़ी रही है। बीजेपी अयोध्या और हिंदुओं का मसला उठाने की चैंपियन रही है। उसे लगातार हर चुनाव में इसका फायदा भी मिला है। उसकी पॉलिटिक्स राम और हिंदुओं के बगैर अधूरी है। अयोध्या और राम एक-दूसरे का पर्याय हैं। ऐसे में चुनाव आते ही राम और उनकी नगरी सभी की जुबान पर चढ़ने लगती है।
कैसे बदल गई पार्टियों की स्ट्रैटेजी? : 2014 में भाजपा की प्रचंड जीत सभी दलों के लिए एक बड़ा सबक थी। इसने देश की पॉलिटिक्स में एक बड़ा शिफ्ट किया। तमाम राजनीतिक दलों का सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ झुकाव बढ़ने लगा। हर पार्टी हिंदुत्व की बात करने लगी। मुसलमानों के दिलों पर राज करने वाली समाजवादी पार्टी (SP) भी खुद को इससे अछूता नहीं रख सकी। इस लहर में बसपा भी शामिल हो गई।
सपा सत्ता में आने पर भगवान परशुराम की मूर्तियां बनवाने का वादा करने लगी। बसपा की प्रबुद्ध समाज गोष्ठी का आयोध्या में आयोजन और सतीश चंद्र मिश्रा का राम मंदिर जाना भी इस ओर संकेत देता है। इन तमाम पार्टियों ने अपनी मूल विचारधारा से ट्विस्ट किया है। जहां तक मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का सवाल है तो उसे भी इस बात का इल्म है कि सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाए बगैर वह बीजेपी को टक्कर नहीं दे सकती। प्रयागराज में हाथों में माला लेकर गंगा में प्रियंका गांधी वाड्रा के डुबकी लगाने का मतलब भी वही था।
क्या हिंदुत्व बना जीत का फॉर्मूला? : भाजपा के एजेंडे में हिंदुत्व हमेशा से मुखरता से रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद 2019 में भी यह उसके जीत का फॉर्मूला बना। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी यह उसके लिए फायदेमंद साबित हुआ। दूसरी पार्टियों को भी शायद इस फॉर्मूले की मजबूती का एहसास हो गया है। यही कारण है कि वे भी इस मामले में भाजपा के पीछे-पीछे चल दी हैं।