साउथ एशियन असोसिएशन फॉर रीजनल को-ऑपरेशन यानी सार्क देशों के विदेश मंत्रियों की शनिवार 25 सितंबर को न्यू यॉर्क में प्रस्तावित बैठक कैंसल हो गई। इस प्रकरण में पाकिस्तान का वह चेहरा बिल्कुल बेनकाब हो गया, जिसे तरह-तरह के उपायों से दुनिया से छुपाने की नाकाम कोशिश वह लगातार करता रहा है। हालांकि अफगानिस्तान में तालिबान को मिल रहे पाकिस्तानी समर्थन में किसी तरह का संदेह किसी को भी नहीं रहा है, लेकिन खुद पाकिस्तान इसके बावजूद दावा करता रहा है कि वह तालिबान का समर्थन नहीं कर रहा और अफगानिस्तान में अगर उसकी कोई दिलचस्पी है तो यही कि पूरे क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनी रहे। लेकिन काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद किसी अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय संगठन की बैठक का यह पहला मौका आया नहीं कि पाकिस्तान ने इसमें तालिबान की नुमाइंदगी का सवाल उठा दिया।
सभी जानते हैं कि तालिबान की कथित सरकार को अभी किसी भी देश की मान्यता नहीं मिली है। उसके द्वारा घोषित सरकार के घटकों के बीच भी रह-रह कर हिंसा और मारपीट की खबरें आ रही हैं। उस कथित सरकार के कई प्रमुख सदस्य संयुक्त राष्ट्र की आतंकी लिस्ट में या दूसरे देशों की वॉन्टेड लिस्ट में हैं। ऐसे में सार्क देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में तालिबान को शामिल करने की जिद का भला क्या औचित्य हो सकता है? स्वाभाविक ही अन्य सार्क देश इस आग्रह को विचार करने लायक मानने को भी तैयार नहीं हुए। चूंकि इस पर आपस में कोई सहमति नहीं बन पाई और सार्क में कोई भी फैसला सर्वसम्मति से ही लिया जाता है, इसलिए बैठक को रद्द कर दिया गया। आतंकवाद के सवाल पर पाकिस्तान की ऐसी संदिग्ध भूमिका के ही कारण सार्क का मंच निष्क्रिय ही नहीं मरणासन्न हो गया है।
2016 में इसकी 19वीं शिखर बैठक इस्लामाबाद में होने वाली थी, मगर उरी में इंडियन आर्मी कैंप पर हुए आतंकी हमले के चलते इसे रद्द करना पड़ा था। तब से इसका कोई शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है। पाकिस्तान के अड़ियल रुख का असर इसके सामान्य कामकाज पर भी हुआ है। किसी मसले पर आम सहमति तक पहुंचना करीब-करीब नामुमकिन हो गया है, जिस वजह से एक दौर में संभावनाशील माना जाने वाला यह मंच निरर्थकता की गति को प्राप्त होता जा रहा है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव और अफगानिस्तान- इन आठ दक्षिए एशियाई देशों की सदस्यता वाले इस संगठन से चीन, यूरोपीय समुदाय (ईयू), ईरान, साउथ कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया, मॉरिशस, म्यांमार और अमेरिका ऑब्जर्वर के रूप में जुड़े हुए हैं। जाहिर है, दुनिया के 3 फीसदी भौगोलिक क्षेत्र, 21 फीसदी आबादी और 4.21 फीसदी इकॉनमी को कवर करने वाले इस संगठन की इस पूरे क्षेत्र में शांति, सहयोग, और स्थिरता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी। ऐसा न हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।